अक्षय-अरशद को एक्टिंग में खा गया ये एक्टर

साल 2013 में आई सुभाष कपूर निर्देशित फिल्म जॉली एलएलबी ( Jolly LLB 3 movie Review) में मेरठ का जगदीश त्यागी (अरशद वारसी) उर्फ जॉली लैंडक्रूजर हिट एंड रन केस लड़ता है। चार साल बाद आई इस फ्रेंचाइजी की दूसरी फिल्म में मिजाज वही रहता है, लेकिन जॉली बनता है कानपुर का जगदीश्वर मिश्रा (अक्षय कुमार)। दोनों जॉली की खासियत है कि यह थोड़ा अनाड़ी है, अल्हड़ हैं, लेकिन ईमानदार हैं।
अब करीब आठ साल सुभाष कपूर फिर लौटे हैं, लेकिन इस बार दोनों जॉली को साथ लेकर। यहां पर नींव वही पुरानी है बस दोनों जाली साथ आए हैं। इस बार कहानी का स्तर भी भव्य हुआ है, लेकिन जौलीनेस (प्रसन्नता) पिछली दोनों फिल्मों से कम है। इस बार किसान आत्महत्या और भूमि अधिग्रहण का मामला है। कहानी साल 2011 में उत्तर प्रदेश के भट्टापरसौल में हुई घटना से प्रेरित है, लेकिन उसका प्रस्तुतिकरण काल्पनिक है।
कहां से शुरू होती है जॉली एलएलबी 3 की कहानी?
कहानी का आरंभ राजस्थान के परसौल गांव से होता है। उद्योगपति हरिभाई खेतान (गजराज राव) को उनके ड्रीम प्रोजेक्ट “बीकानेर टू बोस्टन” के लिए किसान राजाराम सोलंकी (रॉबिन दास) अपनी पुश्तैनी जमीन बेचने से इनकार कर देता है। वह कर्ज ली गई राशि नहीं चुका पाता है। ऐसे में तहसीलदार उसकी जमीन का अस्थायी मालिकाना हक देनदार को सौंप देता है। इससे आहत राजाराम अपनी जान दे देता है। कुछ साल बाद, राजाराम की विधवा जानकी (सीमा बिस्वास) की बदौलत यह मामला दिल्ली की अदालत में पहुंचता है।
शुरुआत में जगदीश्वर मिश्रा (अक्षय कुमार) इस मामले को जानकी के खिलाफ लड़ता है। वहीं जानकी की तरफ से जगदीश त्यागी मुकदमा लड़ता है, लेकिन मुकदमा हार जाता है। घटनाक्रम तब मोड़ लेती है जब जगदीश्वर और जगदीश आपसी प्रतिद्वंद्वता दरकिनार कर जानकी का मुकदमा एकसाथ लड़ते हैं। वहीं खेतान की पैरवी हाई प्रोफाइल वकील विक्रम (राम कपूर) करता है, जिसकी दलील होती है कि विकास बुलेट ट्रेन की गति से होना चाहिए।।
क्लाइमेक्स से लेकर इन बारीकियों का रखा ध्यान
जॉली फ्रेंचाइजी की तीसरी फिल्म जॉली एलएलीबी 3 में सुभाष कपूर अपने चिरपरिचित अंदाज में ही हैं। मध्यांतर से पहले कहानी दोनों जॉली के बीच नोकझोंक और प्रतिद्वंद्वता पर ज्यादा केंद्रित है। साथ में किसानों का मुद्दा और अपील चलती है। हालांकि, उसे बेहतर बनाने की पूरी संभावना थी। कुछ दृश्यों को देखते हुए लगता है कि हरिभाई पूरी ताकत से दोनों जॉली के खिलाफ नहीं लड़ रहा है।
दरअसल, हरिभाई के प्रभुत्व और वर्चस्व को देखते हुए उम्मीद की जाती है कि वह और उसकी कानूनी टीम अदालत में पलटवार करेंगे, लेकिन ऐसा नहीं होता। शायद यही वजह है कि सौरभ शुक्ला के जज की भूमिका ज्यादा अहम हो जाती है। वह पुलिस अधिकारी (शिल्पा शुक्ला) को रिझाने के साथ-साथ हरिभाई जैसे लालची व्यापारियों पर लगाम लगाने में भी काफी समय लेते है। बहरहाल, क्लाइमेक्स को सुभाष ने शानदार बनाया है। लेखन की बात करें तो कहीं कहीं तीखा है।
हास्य और व्यंग्य के लिए वास्तविक घटनाओं को सांकेतिक तौर पर इस्तेमाल किया है। उदाहरण के लिए एक व्यवसायी वीएम का एक संक्षिप्त संदर्भ है, जो भारी कर्ज न चुका पाने के बाद लंदन भाग गया था। तकनीकी पक्ष की बात करें तो मंगेश धाकड़े का बैकग्राउंड स्कोर पटकथा के अनुरूप है। सिनेमेट्रोग्राफर रंगराजन रामबद्रन ने दिल्ली से राजस्थान और अदालती माहौल को बारीकी से कैमरे में कैद किया हैं। परवेज शेख का एक्शन और वीरा कपूर की वेशभूषा यथार्थवादी है।
इस एक्टर ने लूट ली पूरी लाइमलाइट
स्क्रीन प्रेजेंस की बात करें तो अरशद वारसी के मुकाबले अक्षय कुमार को ज्यादा मजबूत दृश्य और वन लाइनर मिले हैं। दोनों की केमिस्ट्री जमती है खास तौर पर इंटरवल के बाद अदालती कार्यवाही के दौरान। सीमा बिस्वास के पास फिल्म में ज्यादा संवाद नहीं हैं, लेकिन उनकी खामोशी बेहद प्रभावशाली है। उनकी आंखों में जो गहराई और तीव्रता है, वह दर्द और ताकत का एहसास कराती है। खलनायक की भूमिका में गजराज राव की भूमिका को लेखन स्तर पर थोड़ा और चुस्त बनाने की जरूरत थी। राम कपूर अपनी भूमिका में सहज हैं। वहीं हुमा कुरैशी और अमृता राव को कम स्क्रीन टाइम मिलता है, लेकिन वे अपने किरदारों को पूरी लगन से निभाती हैं।
फिल्म का खास आकर्षण हैं सौरभ शुक्ला। अपनी लाजवाब टाइमिंग और साधारण से साधारण संवाद को भी हंसी के ठहाकों में बदल देने की कला के साथ, वो हर फ्रेम में छा जाते हैं। जॉली एलएलबी 3 किसानों यानी अन्नदातों को अहमियत और जिम्मेदारी को रेखांकित करती है। अंतिम जिरह में जगदीश त्यागी जोरदार शब्दों में कहता है जब हरिभाई की मर्जी की वैल्यू है, विक्रम की है …फिर जानकी राजाराम की मर्जी की वैल्यू क्यों नहीं है। इन वाक्यों में ही जॉली एलएलबी 3 का मर्म है।