जलियांवाला बाग हत्याकांड: 106 साल बाद भी कम नहीं हुआ दर्द…

जलियांवाला बाग हत्याकांड को अमृतसर हत्याकांड के नाम से भी जाना जाता है। 13 अप्रैल 1919 को हुआ था। ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बगावत को कुचलने के लिए जरनल डायर 10 अप्रैल 1919 की रात को अफसरों के साथ बैठक में अमृतसर शहर पर बम बरसाने तक के लिए तैयार हो गया था।

13 अप्रैल 1919 के दिन हुए जलियांवाला बाग हत्याकांड की 106वीं वर्षगांठ पर एक बार फिर शहीदों के परिवारों का दर्द उभर आया है। उनका कहना है कि शासन-प्रशासन और आम लोग इस दिन जलियांवाला बाग पहुंच कर शहीदों को नमन करते हैं, लेकिन इसका दूसरा दुखद पहलू यह है कि बर्तानवी हुकूमत की गोलियां झेलने वाले उन रणबांकुरों के वंशजों की हालत के बारे में चर्चा नहीं होती। उनके वारिसों को न तो कोई पहचान मिली न ही उनको स्वाधीनता सेनानी परिवार का दर्जा दिया गया। आज तक बाग में कितने लोग शहीद हुए उनका भी सटीक डाटा सरकार उपलब्ध नहीं करा सकी है। अपनों को खोने के बाद पीढि़यों तक गुरबत का दंश झेलने वाले परिवार के लोग आज भी खिन्न मन से संघर्ष कर रहे हैं कि शायद उनकी कभी सुनवाई हो।

जलियांवाला बाग शहीद परिवार समिति के प्रधान महेश बहल के दादा लाला हरिराम बहल भी जलियांवाला बाग में शहीद हुए थे। उनके बेटे नैनीश बहल समिति के महासचिव हैं। वे कहते हैं कि उनके नसीब में तो संघर्ष ही लिखा है। साल 2008 तक तो इस हत्याकांड बाग में मारे गए लोगों को शहीद ही नहीं माना जाता रहा। हमने लंबी लड़ाई लड़ी, तो सरकार ने यह माना, लेकिन आगे परिवारों को स्वाधीनता सेनानी परिवार नहीं माना गया। औपचारिकता के लिए सिर्फ चार लोगों को पहचान पत्र जारी कर दिया गया था। जलियांवाला बाग नेशनल मेमोरियरल ट्रस्ट में उनके लोगों का नाम तक शामिल नहीं किया गया। उनके लोगों को न तो शहीद परिवार की सुविधा दी। हालांकि, आम लोग उनको सम्मान देते हैं।

समागमों में बुलाया तक नहीं जाता : सतपाल दानिश
दरबार साहिब में नक्काशी करने वाले चित्रकार ज्ञान सिंह नक्काश के 15 वर्षीय बेटे सुंदर सिंह बाग में शहीद हुए थे। सोहन सिंह के पोते और वरिष्ठ चित्रकार सतपाल दानिश इस बात से दुखी हैं कि मुआवजा और पहचान देना तो दूर, उनके लोगों को बाग से संबंधित समागमों में बुलाया तक नहीं जाता। उन्होंने बताया कि घटना के समय परिवार में इतनी गरीबी थी कि सुंदर सिंह के संस्कार के लिए कर्ज पर पैसे लिए गए थे और उसके सूद के रूप में परिवार के लोग रोजाना पैसा देने वाले घर सुबह शाम कुएं से पानी भर कर पहुंचाते थे।

परिवारों की मांगों को हमेशा किया अनसुना: सुनील कपूर
स्वतंत्रता सेनानी फाउंडेशन के प्रधान सुनील कपूर ने बताया कि बाग में उनके परदादा शहीद हुए थे। हर बार शहीदी दिन पर वह लोग मांग उठाते हैं और आगे-पीछे भी इस लड़ाई को जारी रखते हैं, लेकिन किसी भी सरकार ने उनको गंभीरता से नहीं लिया। वह कहते हैं कि शहीदों के जीवित परिजनों को ताम्रपत्र, प्रमाण पत्र और स्वतंत्रता सेनानी जैसी सुविधाएं दी जानी चाहिए।

उपेक्षा से उजड़ कर दूसरे शहरों को चले गए परिवार: कोछड़
जलियांवाला बाग के शहीदों को सम्मान दिलवाने की लड़ाई लड़ने वाले इतिहासकार सुरिंदर कोछड़ कहते हैं कि जलियांवाला बाग कांड से प्रभावित भागमल भाटिया की विधवा अतर कौर का परिवार गरीबी और उपेक्षा से उजड़कर दिल्ली चला गया। वह कहते हैं कि भागमल भाटिया के बेटे सोहन लाल भारतीय घटना के वक्त मां की कोख में थे। बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उनको जलियांवाला बाग के अभिमन्यु का खिताब दिया था। 1984 के दंगों में अमृतसर के सुल्तानविंड रोड स्थित सोहन लाल भारती की बिजली की दुकान को दंगाकारियों ने जला दिया था। इसके बाद यह गैरतमंद परिवार दिल्ली चला गया।

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