सरोकार की आवाजें जब कमजोर होती हैं तो ‘विद्रोही’ की कविताएं भीड़ की तरह बोलती हैं
यह लेख चंद्रिका ने लिखा है –
जीवन स्थायित्व की तलाश करता है। कवि ने अस्थायित्व को चुना। बेघर रहा, हर रात का दर ही उसका घर रहा। जहाँ शाम हो जाए, जहाँ नींद आ जाए वहीं घर हो जाए। उन्होंने जीवन इसी तरह जिया। रमा शंकर यादव नाम मिटता गया और वह विद्रोही बनता गया, कवि विद्रोही और विद्रोह का कवि। सबने उन्हें इसी नाम से जाना। लोगबाग जेएनयू आते तो उन्हें इसी नाम से खोजते। विद्रोही कुछ वक्त के लिए अगर कहीं चले जाते तो जेएनयू उन्हें इसी नाम से खोजता। यहीं उनका घर था।
यहाँ के ढाबे और यहाँ की सारी जगहों के रिक्त स्थानों में जरूरी शब्द की तरह जरूरी वक्त पर वे खड़े हो जाते। लड़ाई में लोग कम होते तो उनकी कविताएँ भीड़ की तरह बोलने लगतीं। जेएनयू के पत्थरों को उनके पीठ के निशान की आदत सी हो गई थी जो शायद अब भी बची हों। सर्दियों के एक दिन वह शहर की तरफ गया, छात्रों के साथ किसी लड़ाई का हमवार होने और लौटा तो उसकी लाश लौटी।
कविता बड़बड़ाते हुए वह चुप हो गये…
वह 3 बरस पहले के दिसंबर की यही शाम थी। कुछ नारे लगाते हुए, कुछ कविता बड़बड़ाते हुए वह चुप हो गया अचानक। वहीं, शहर और जुलूस की भीड़ के बीचोबीच। वह कविता के तौर-तरीक़ों से लेकर जीवन तक में विद्रोही रहा। वह कविताओं का लेखक नहीं था, एक बुनकर कवि था जो अपने ही भीतर कविताओं को बुनता-धुनता और वक्त-बेवक्त उन्हें सुनाता। कवि जिसका लिखा हुआ कुछ भी नहीं है, सबकुछ कहा हुआ है। उनका कहा हुआ ही और लोगों ने लिखा और एक अकेली उनकी किताब का शीर्षक दे दिया ‘नयी खेती’।
विद्रोही, इंसान के रूप में एक बिम्ब की तरह थे। सबको समझने का अलग-अलग मायने देते हुए, जीवन और लिबास में जर्जर, और एक मजबूत जनकवि उसके भीतर। लिबास से आदमी को पहचान करने वालों के लिए पूर्ण विराम लगाते हुए। इंसान की पहचान का कोई और मायने बताते हुए। वे इंसान को समझने और उसे भीतर से कहीं तलाशने का तौर देते थे।
बेसुमार नामों में छूटा हुआ होना ही कवि होना है…
जो उस इंसान की भाषा में है, जो उसके जीवन जीने के सलीके में है। शुमार कवियों के नामों में उनका नाम छूट गया, छोड़ दिया गया। आलोचकों से भी, साहित्य के मठाधीशों से भी। बेशुमार नामों में छूटा हुआ होना ही उनका कवि होना है। एक अलग रास्ते का कवि, पगडंडी की तरफ जाता हुआ कवि। पढ़ाई अधूरी छोड़ दी, ऐसा लोग कहते हैं।
जबकि आख़िरी वक्त तक देश और दिल्ली की लड़ाई ही उनकी पढ़ाई रही। जुलूस, नारे, भीड़ और समारोह ही उनकी किताबें थीं। बदलाव की लड़ाइयों के हमवार रहे वे। सबकी बातों के बाद आख़िर में अपनी बात कहते, जोर से कहते और यही उनकी कविता होती। जिसमे इतिहास से वर्तमान तक सिमटा होता। वह इतिहास जो लिखा नहीं गया। जिसे लिखने के बजाय हर बार मिटाया जाता रहा। उसी मिटे हुए को वे सुनाते रहे। कविता में इतिहास को बताते रहे। वे अपने को बचाने की बात कहते हुए एक इतिहासबोध, एक सभ्यता को बचाने की बात करते हैं। वे लिखते हैं कि-
तुम वे सारे लोग मिलकर मुझे बचाओ
जिसके खून के गारे से
पिरामिड बने, मीनारें बनीं, दीवारें बनीं
क्योंकि मुझको बचाना उस औरत को बचाना है
जिसकी लाश मोहनजोदड़ो के तालाब की आख़िरी सीढ़ी पर पड़ी है
मुझको बचाना उस इंसान को बचाना है
जिसकी हड्डियां तालाब में बिखरी पड़ी हैं
मुझको बचाना अपने पुरखों को बचाना है
मुझको बचाना अपने बच्चों को बचाना है
तुम मुझे बचाओ !
मैं तुम्हारा कवि हूँ
मैं किसान हूँ, आसमान में धान बो रहा हूँ
यह बचाना इतिहास में उस समाज को बचाना है, जो दुनिया को गढ़ रहा है और खुद लगातार मर रहा है। जिसका रचा हुआ ही इतिहास का बनना है, इतिहास की रचना है पर वहाँ से उसे गायब कर दिया गया है। यह एक चेतना है जो मेहनतकशों की गवाही के लिए विद्रोही अपनी कई कविताओं में खड़ा करते हैं। उनकी कविताएं सवाल करती थीं, तर्क करती थीं और जवाब देती थीं।
जिस तरह से उनका जीवन बनी बनाई मान्यताओं को तोड़ता हुआ जीवन था, उसी तरह कविताओं में वे सवालों और तर्कों के जरिए बनी हुई झूठी मान्यताओं को तोड़ते थे। धर्म से तर्क करते थे, विद्रोह की भाषा में उससे जिद करते थे, नई खेती कविता में वे बोलते हैं कि-
मैं किसान हूँ
आसमान में धान बो रहा हूँ
कुछ लोग कह रहे हैं
कि पगले आसमान में धान नहीं जमता
मैं कहता हूँ कि
गेगले-गोगले
अगर ज़मीन पर भगवान जम सकता है
तो आसमान में धान भी जम सकता है
…भविष्य में वह आख़िरी औरत कौन होगी
इस तरह वे सवाल करते। सवाल में तर्क करते और तर्क को जिद में बदल देते, जिद ही उनकी कविता के अंत का मूल होती है। जो उनके जीवन और कविता दोनों में दिखती है। अपनी एक कविता ‘औरत’ जिसे वे अक्सर सुनाया करते थे, उसके अंत में भी तर्क के साथ इसी जिद के होने को हम देख सकते हैं। जिसे वे सवाल के सहारे बोलते हुए सुनाते कि-
इतिहास में वह पहली औरत कौन थी
जिसे सबसे पहले जलाया गया
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी रही होगी
मेरी माँ रही होगी
लेकिन मेरी चिंता यह है कि
भविष्य में वह आख़िरी औरत कौन होगी
जिसे सबसे अंत में जलाया जाएगा
मैं नहीं जानता
लेकिन जो भी होगी
मेरी बेटी होगी
और मैं यह नहीं होने दूंगा
यही जिद ही विद्रोह है। तर्कों से अपनी बात पर अडिग हो जाना ही उनका विद्रोही होना है। अपनी एक कविता ‘पिछली सदी की आख़िरी रात में भी वे लिखते हैं कि-
ऐ मेरे देवता !
अब बहुत हो चुका
आदमी के लिए रास्ता छोड़ दो
मैं गुनहगार हूँ
मुझको दे दो सज़ा
तुम गला काट लो
मेरा सिर तोड़ दो
धरती देखा गगन निहारा…
विद्रोही ने अवधी में भी कुछ कविताएँ लिखी। जिनके विषय अवध के लोग और अवध का लोक रहा। ज़मीन, बिरहा और आसपास को समझाते-बताते हुए। यह उनका अपना देस था जिसकी देसजता को वे बखूबी समझते और सुनाते रहते। हिंदी में कहते-बोलते हुए वे अवधी सुनाने लगते। वे इन्हीं तर्कों के साथ ही सहज बोलचाल की भाषा में सवाल की कविता करते। जवाब देते और उनकी उम्मीद भी वहीं से बनी रही। जहाँ लोग हैं, जहाँ सब मिलकर कुछ सोच रहे हैं। सब मिलकर ही सवालों को हल कर रहे हैं। अपनी ‘कविता कोई राह निकल आएगी’ में वे सुनाते हैं कि-
धरती देखा गगन निहारा
नहीं मिला जब कहीं सहारा
तब सोचा बाज़ार चलेंगे
भाव-ताव मालूम करेंगे
कुछ न होगा लोग मिलेंगे
चार पंच के दर्शन होंगे
चार पंच मिलकर सोचेंगे
कोई राह निकल आएगी